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Pramod Ranjan deposited पिछड़ी हुई हिंदी आलोचना बनाम हिंदी वैचारिकी in the group
Public Humanities on Humanities Commons 1 year, 5 months ago
यह बात पहले भी कही जाती रही है कि हिंदी आलोचना की स्थिति दयनीय है। लेकिन इस आरोप का दायरा रचनात्मक साहित्य की अच्छी समीक्षाएं नहीं आने तक ही सीमित रहा है। प्रमोद रंजन अपने इस आलेख में बताते हैं कि किस प्रकार हिंदी आलोचना की अकर्मण्यता सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता तक पहुंचाने में सहायक हुई। साथ ही वे प्रस्तावित करते हैं कि ‘हिंदी आलोचना’ जैसे कम प्रासंगिक अनुशासन की जगह ‘हिंदी वैचारिकी’ के नाम से अधिक समावेशी अनुशासन को विकसित और स्वीकृत किया जाना चाहिए। इससे उस साहित्येत्तर लेखन को भी प्रतिष्ठा मिल सकेगी, जो समाज और राजनीति को दिशा में देने में सक्षम है।