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Pramod Ranjan deposited एक सांस्कृतिक आंदोलन के चार साल in the group
Buddhist Studies on Humanities Commons 8 months, 3 weeks ago
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मुट्ठी भर अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित छात्रों ने जब 25 अक्टूबर, 2011 को पहली बार ‘महिषासुर शहादत दिवस’ मनाया था, तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि यह दावनल की आग सिद्ध होगा। 2015 तक, महज चार सालों में ही इन आयोजनों ने न सिर्फ देशव्यापी सामाजिक आलोडऩ पैदा कर दिया था, बल्कि ये आदिवासियों, अन्य पिछडा वर्ग व दलितों के बीच सांस्कृतिक एकता का एक साझा आधार भी प्रदान कर रहे हैं। दिसंबर, 2015 में लिखी गई इस रिपोर्ट में हमने इनके आयोजकों की विचारधारा, सांस्कृतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए उनकी रणनीति को सामने लाने की कोशिश की है।
इन आयोजनों के एक अध्येता के रूप में देश के विभिन्न हिस्सों में महिषासुर दिवस के आयोजकों से बात करना हमारे लिए एक अनूठा अनुभव रहा था। इनके आयोजकों के पास कहने के लिए ढेर सारी बातें हैं। लेकिन कुछ साझा बातें अनायास ध्यान खींचती हैं। ये सभी आयोजक बताते हैं कि हम ”बचपन से इस विषय में सोचते थे कि दुर्गा की मूर्तियों में जो असुर है, उसका रंग-रूप क्यों हम लोगों जैसा है और क्यों उसे मारने वालों की कद-काठी पहनावा आदि सब उनके जैसा है, जो आज के द्विज हैं!’’ बाद में जब उन्होंने अपने स्तर पर विचार किया और खोजबीन की तो आश्चर्यचकित रह गये। उनके आसपास, यहां तक कि कई मामलों में तो अपने घरों में ही मनुज देवा, दैत्येरा, मैकासुर, कारसदेव आदि से संबंधित असुर परंपराएं पहले से ही मौजूद थीं। कुछ आयोजक मानते हैं कि महिषासुर व उनकेगण कोई मिथकीय पात्र नहीं हैं, बल्कि एतिहासिक पात्र हैं, जो उनके कुनबे के रक्षक, प्रतापी राजा अथवा जननायक थे। सभी आयोजक महिषासुर की ‘पूजा’ का विरोध करते हैं तथा सभी प्रकार के कर्मकांडों का निषेध करते हैं। शायद यही इन आयोजनों की असली ताकत भी है। चार सालों में यह एक प्रकार की सांस्कृतिक राजनीति का आयोजन भी बन चुका था। यह न सिर्फ नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में हो रहा है बल्कि दूर-दराज के गांव-कस्बों में भी इसकी जबरदस्त चर्चा है। बात सरकारी अमले तक पहुंची है और कई जगहों पर इस उत्सव के दिन सुरक्षा के दृष्टिकोण से अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती की जाने लगी है।